प्रधान संपादक : के.पी. 'अनमोल'
संस्थापक एवं संपादक: प्रीति 'अज्ञात'
तकनीकी संपादक :
मोहम्मद इमरान खान
ग़ज़ल-
अंतर्मन में जब बलवा हो जाता है
रो लेता हूँ मन हल्का हो जाता है
कैरम की गोटी-सा जीवन है मेरा
रानी लेते ही गच्चा हो जाता है
रोज़ बचाता हूँ इज़्ज़त की चौकी मैं
रोज़ मगर इस पर हमला हो जाता है
कैसे कह दूँ अक्सर अपने हाथों से
करता हूँ ऐसा, वैसा हो जाता है
पीछे कहता रहता है क्या-क्या मुझको
मेरे आगे जो गूंगा हो जाता है
ठीक कहा था इक दिन पीरो-मुर्शिद ने
धीरे-धीरे सब अच्छा हो जाता है
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ग़ज़ल-
अगर वो हादिसा फिर से हुआ तो
मैं तेरे इश्क में फिर पड़ गया तो
कि उसका रूठना भी लाज़मी है
मना लूँगा अगर होगा ख़फ़ा तो
मेरी उलझन सुलझती जा रही है
दिखाया है तुम्हीं ने रास्ता तो
यक़ीनन राज़-ए-दिल मैं खोल दूंगा
दिया अपना जो उसने वास्ता तो
रुका बिलकुल नहीं वो पास आकर
मैं खुश हूँ कम-से-कम मुझसे मिला तो
चलो कुछ देर रो लें साथ मिलकर
कोई लम्हा ख़ुशी का मिल गया तो
तुझे महफूज़ कर लूँ ज़हन-ओ-दिल में
मिला है तू कहीं फिर खो गया तो
नज़र तुम ज़िन्दगी समझे हो जिसको
फ़क़त पानी का हो वो बुलबुला तो
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ग़ज़ल-
जीत कर भी फिर से हारी ज़िंदगी
पूछिए मत क्यूँ गुजारी ज़िंदगी
इक महाजन सबके ऊपर है खड़ा
जिसने हमको दी उधारी ज़िंदगी
चुना-कत्था लग रहा है आये दिन
पान, बीड़ी और सुपारी ज़िंदगी
इक तरफ महमूद-सा अंदाज़ है
इक तरफ मीना कुमारी ज़िंदगी
हो गई है इस ‘हनी’ से बोर जब
फिर तो बस ‘राहत’ पुकारी ज़िंदगी
चैन की फिर नींद आई क़ब्र में
अपने तन से जब उतारी ज़िंदगी
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ग़ज़ल-
किया तुमने भी है कल रतजगा क्या
तुम्हें भी इश्क़ हमसे हो गया क्या
तुम्हें ही देखना चाहे निगाहें
इजाज़त देगा मेरा आइना क्या
मेरा तू मुद्दआ तू मसअला थी
बिछा लेता तुझे तो ओढ़ता क्या
यहाँ जिसको भी देखो ज़ोम में है
हमारे शह्र को आखिर हुआ क्या
मिरे अतराफ़ में तेरी सदा थी
तुझे दैर-ओ-हरम में ढूंढता क्या
भटकना जब मेरी क़िस्मत में शामिल
पता सहराओं का फिर पूछना क्या
ज़माने पर भरोसा कर लिया है
नज़र तू हो गया है बावला क्या